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Our Past : अतीत में क्या हुआ था ? कब हुआ था ? कैसे हुआ था ? और कहाँ हुआ था ? ये सब कैसे पता लगाते हैं ?

कैसे पता लगाते हैं पिछली बातें ? How to find out past things

यह जानने के लिए कि कल क्या हुआ था , आप रेडियो सुन सकते हो , टेलीविज़न देख सकते हो या फिर अख़बार पढ़ सकते हो । साथ ही यह जानने के लिए कि पिछले साल क्या हुआ था , तुम किसी ऐसे व्यक्ति से बात कर सकते हो जिसे उस समय की स्मृति हो । लेकिन बहुत पहले क्या हुआ था यह कैसे जाना जा सकता है ? आगए जानिए ।

अतीत के बारे में हम क्या क्या जान सकते हैं ? What can we know about the past

अतीत के बारे में बहुत कुछ जाना जा सकता है - जैसे लोग क्या खाते थे , कैसे कपड़े पहनते थे , किस तरह के घरों में रहते थे ?

हम आखेटकों ( शिकारियों ) , पशुपालकों , कृषकों , शासकों , व्यापारियों , पुरोहितों , शिल्पकारों , कलाकारों , संगीतकारों या फिर वैज्ञानिकों के जीवन के बारे में जानकारियाँ हासिल कर सकते हैं । यही नहीं हम यह भी पता कर सकते हैं कि उस समय बच्चे कौन - से खेल खेलते थे , कौन - सी कहानियाँ सुना करते थे , कौन - से नाटक देखा करते थे या फिर कौन - कौन से गीत गाते थे । आगे जानिए


अतीत में लोग कहाँ रहते थे ? Where did people live in the past

1. नर्मदा नदी - Narmada River

कई लाख वर्ष पहले से लोग इस नदी के तट पर रह रहे हैं । यहाँ रहने वाले आरंभिक लोगों में से कुछ कुशल संग्राहक थे जो आस - पास के जंगलों की विशाल संपदा से परिचित थे । अपने भोजन के लिए वे जड़ों , फलों तथा जंगल के अन्य उत्पादों का यहीं से संग्रह किया करते थे । वे जानवरों का आखेट ( शिकार ) भी करते थे ।


2. उत्तर - पश्चिम की सुलेमान और किरथर पहाड़ियाँ- Sulaiman and Kirthar hills of the north-west

इस क्षेत्र में कुछ ऐसे स्थान हैं जहाँ लगभग आठ हज़ार वर्ष पूर्व स्त्री - पुरुषों ने सबसे पहले गेहूँ तथा जौ जैसी फ़सलों को उपजाना आरंभ किया । उन्होंने भेड़ , बकरी और गाय - बैल जैसे पशुओं को पालतू बनाना शुरू किया । ये लोग गाँवों में रहते थे ।


3. उत्तर - पूर्व में गारो तथा मध्य भारत में विंध्य पहाड़ियाँ - Garo in north-east and Vindhya hills in central India

 ये कुछ अन्य ऐसे क्षेत्र थे जहाँ कृषि का विकास हुआ । जहाँ सबसे पहले चावल उपजाया गया वे स्थान विंध्य के उत्तर में स्थित थे ।


4. सिंधु तथा इसकी सहायक नदियाँ- Indus and its tributaries

सहायक नदियाँ उन्हें कहते हैं जो एक बड़ी नदी में मिल जाती हैं । लगभग 4700 वर्ष पूर्व इन्हीं नदियों के किनारे कुछ आरंभिक नगर फले - फूले । गंगा व इसकी सहायक नदियों के किनारे तथा समुद्र तटवर्ती इलाकों में नगरों का विकास लगभग 2500 वर्ष पूर्व हुआ । 


5. गंगा तथा इसकी सहायक नदी सोन - Ganga and its tributary Sone

 गंगा के दक्षिण में इन नदियों के आस - पास का क्षेत्र प्राचीन काल में ' मगध ' नाम से जाना जाता था । इसके शासक बहुत शक्तिशाली थे और उन्होंने एक विशाल राज्य स्थापित किया था । देश के अन्य हिस्सों में भी ऐसे राज्यों की स्थापना की गई थी ।


 लोगों ने सदैव उपमहाद्वीप के एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक यात्रा की । कभी - कभी हिमालय जैसे ऊँचे पर्वतों , पहाड़ियों , रेगिस्तान , नदियों तथा समुद्रों के कारण यात्रा जोखिम भरी होती थी , फिर भी ये यात्रा उनके लिए असंभव नहीं थीं । अतः कभी लोग काम की तलाश में तो कभी प्राकृतिक आपदाओं के कारण एक स्थान से दूसरे स्थान जाया करते थे । कभी - कभी सेनाएँ दूसरे क्षेत्रों पर विजय हासिल करने के लिए जाती थीं । इसके अतिरिक्त व्यापारी कभी काफ़िले में तो कभी जहाज़ों में अपने साथ मूल्यवान वस्तुएँ लेकर एक स्थान से दूसरे स्थान जाते रहते थे । धार्मिक गुरू लोगों को शिक्षा और सलाह देते हुए एक गाँव से दूसरे गाँव तथा एक कसबे से दूसरे कसबे जाया करते थे ।

कुछ लोग नए और रोचक स्थानों को खोजने की चाह में उत्सुकतावश भी यात्रा किया करते थे । इन सभी यात्राओं से लोगों को एक - दूसरे के विचारों को जानने का अवसर मिला । 


आज लोग यात्राएँ क्यों करते हैं ? Why do people travel today?

पहाड़ियाँ , पर्वत और समुद्र हमारे इस उपमहाद्वीप की प्राकृतिक सीमा का निर्माण करते हैं । हालांकि लोगों के लिए इन सीमाओं को पार करना आसान नहीं था , जिन्होंने ऐसा चाहा वे ऐसा कर सके , वे पर्वतों की ऊँचाई को छू सके तथा गहरे समुद्रों को पार कर सके । उपमहाद्वीप के बाहर से भी कुछ लोग यहाँ आए और यहीं बस गए । लोगों के इस आवागमन ने हमारी सांस्कृतिक परंपराओं को समृद्ध किया । कई सौ वर्षों से लोग पत्थर को तराशने , संगीत रचने और यहाँ तक कि भोजन बनाने के नए तरीकों के बारे में एक - दूसरे के विचारों को अपनाते रहे हैं ।

हमारे देश का नाम - Name of our country

अपने देश के लिए हम प्रायः इण्डिया तथा भारत जैसे नामों का प्रयोग करते हैं । इण्डिया शब्द इण्डस से निकला है जिसे संस्कृत में सिंधु कहा जाता है । अपने एटलस में ईरान और यूनान का पता लगाओ । लगभग 2500 वर्ष पूर्व उत्तर - पश्चिम की ओर से आने वाले ईरानियों और यूनानियों ने सिंधु को हिंदोस अथवा इंदोस और इस नदी के पूर्व में स्थित भूमि प्रदेश को इण्डिया कहा । भरत नाम का प्रयोग उत्तर - पश्चिम में रहने वाले लोगों के एक समूह के लिए किया जाता था । इस समूह का उल्लेख संस्कृत की आरंभिक ( लगभग 3500 वर्ष पुरानी ) कृति ऋग्वेद में भी मिलता है । बाद में इसका प्रयोग देश के लिए होने लगा । 


अतीत के बारे में कैसे जानते है ? How do you know about the past

अतीत की जानकारी हम कई तरह से प्राप्त कर सकते हैं । इनमें से एक तरीका अतीत में लिखी गई पुस्तकों को ढूँढना और पढ़ना है । ये पुस्तकें हाथ से लिखी होने के कारण पाण्डुलिपि कही जाती हैं । अंग्रेज़ी में ' पाण्डुलिपि ' के लिए प्रयुक्त होने वाला ' मैन्यूस्क्रिप्ट ' शब्द लैटिन शब्द ' मेनू ' जिसका अर्थ हाथ है , से निकला है । ये पाण्डुलिपियाँ प्रायः ताड़पत्रों अथवा हिमालय क्षेत्र में उगने वाले भूर्ज नामक पेड़ की छाल से विशेष तरीके से तैयार भोजपत्र पर लिखी मिलती हैं ।

ताड़पत्रों से बनी पाण्डुलिपि का एक पृष्ठ यह पाण्डुलिपि लगभग एक हजार वर्ष पहले लिखी गई थी । किताब बनाने के लिए ताड़ के पत्तों को काटकर उनके अलग - अलग हिस्सों को एक साथ बाँध दिया जाता था । भूर्ज पेड़ की छाल से बनी ऐसी ही एक पाण्डुलिपि को आप यहाँ देख सकते हो ।

Our Past : अतीत में क्या हुआ था ? कब हुआ था ? कैसे हुआ था ? और कहाँ हुआ था ? ये सब कैसे पता लगाते हैं ? इतने 

वर्षों में इनमें से कई पाण्डुलिपियों को कीड़ों ने खा लिया तथा कुछ नष्ट कर दी गईं । फिर भी ऐसी कई पाण्डुलिपियाँ आज भी उपलब्ध हैं । प्रायः ये पाण्डुलिपियाँ मंदिरों और विहारों में प्राप्त होती हैं । इन पुस्तकों में धार्मिक मान्यताओं व व्यवहारों , राजाओं के जीवन , औषधियों तथा विज्ञान आदि सभी प्रकार के विषयों की चर्चा मिलती है । 

इनके अतिरिक्त हमारे यहाँ महाकाव्य , कविताएँ तथा नाटक भी हैं । इनमें से कई संस्कृत में लिखे हुए मिलते हैं जबकि अन्य प्राकृत और तमिल में हैं । प्राकृत भाषा का प्रयोग आम लोग करते थे । हम अभिलेखों का भी अध्ययन कर सकते हैं । ऐसे लेख पत्थर अथवा धातु जैसी अपेक्षाकृत कठोर सतहों पर उत्कीर्ण किए गए मिलते हैं । 

कभी - कभी शासक अथवा अन्य लोग अपने आदेशों को इस तरह उत्कीर्ण करवाते थे , ताकि लोग उन्हें देख सकें , पढ़ सकें तथा उनका पालन कर सकें । कुछ अन्य प्रकार के अभिलेख भी मिलते हैं जिनमें राजाओं तथा रानियों सहित अन्य स्त्री - पुरुषों ने भी अपने कार्यों के विवरण उत्कीर्ण करवाए हैं । उदाहरण के लिए प्रायः शासक लड़ाइयों में अर्जित विजयों का लेखा जोखा रखा करते थे ।

लगभग 2250 वर्ष पुराना यह अभिलेख वर्तमान अफगानिस्तान के कंधार से प्राप्त हुआ यह अभिलेख अशोक नामक शासक के आदेश पर लिखा गया था ।

इसके अतिरिक्त अन्य कई वस्तुएँ अतीत में बनीं और प्रयोग में लाई जाती थीं । ऐसी वस्तुओं का अध्ययन करने वाला व्यक्ति पुरातत्त्वविद् कहलाता है । पुरातत्त्वविद् पत्थर और ईंट से बनी इमारतों के अवशेषों , चित्रों तथा मूर्तियों का अध्ययन करते हैं । वे औज़ारों , हथियारों , बर्तनों , आभूषणों तथा सिक्कों की प्राप्ति के लिए छान - बीन तथा खुदाई भी करते हैं । इनमें से कुछ वस्तुएँ पत्थर , पकी मिट्टी तथा कुछ धातु की बनी हो सकती हैं । ऐसे तत्त्व कठोर तथा जल्दी नष्ट न होने वाले होते हैं । पुरातत्त्वविद् जानवरों , चिड़ियों तथा मछलियों की हड्डियाँ भी ढूँढ़ते हैं । इससे उन्हें यह जानने में भी मदद मिलती है कि अतीत में लोग क्या खाते थे । वनस्पतियों के अवशेष बहुत मुश्किल से बच पाते हैं । यदि अन्न के दाने अथवा लकड़ी के टुकड़े जल जाते हैं तो वे जले हुए रूप में बचे रहते हैं । 

पाण्डुलिपियों , अभिलेखों तथा पुरातत्त्व से ज्ञात जानकारियों के लिए इतिहासकार प्रायः स्रोत शब्द का प्रयोग करते हैं । 

इतिहासकार उन्हें कहते हैं जो अतीत का अध्ययन करते हैं । स्रोत के प्राप्त होते ही अतीत के बारे में पढ़ना बहुत रोचक हो जाता है , क्योंकि इन स्रोतों की सहायता से हम धीरे - धीरे अतीत का पुनर्निर्माण करते जाते हैं । अतः इतिहासकार तथा पुरातत्त्वविद् उन जासूसों की तरह हैं जो इन सभी स्रोतों का प्रयोग सुराग के रूप में कर अतीत को जानने का प्रयास करते हैं । 

बाएँ : एक प्राचीन नगर से प्राप्त पात्र । इस तरह के पात्रों का प्रयोग 4700 वर्ष पूर्व होता था । दाएँ : एक पुराना चाँदी का सिक्का । 

यहाँ ' अतीत ' शब्द का प्रयोग बहुवचन के रूप में किया गया है । ऐसा इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाने के लिए किया गया है कि अलग - अलग समूह के लोगों के लिए इस अतीत के अलग - अलग मायने थे । उदाहरण के लिए पशुपालकों अथवा कृषकों का जीवन राजाओं तथा रानियों के जीवन से तथा व्यापारियों का जीवन शिल्पकारों के जीवन से बहुत भिन्न था । जैसाकि हम आज भी देखते हैं , उस समय भी देश के अलग - अलग हिस्सों में लोग अलग - अलग व्यवहारों और रीति - रिवाजों का पालन करते थे ।


उदाहरण के लिए आज अंडमान द्वीप के अधिकांश लोग अपना भोजन मछलियाँ पकड़ कर , शिकार करके तथा फल - फूल के संग्रह द्वारा प्राप्त करते हैं । इसके विपरीत शहरों में रहने वाले लोग खाद्य आपूर्ति के लिए अन्य व्यक्तियों पर निर्भर करते हैं ।


इस तरह के भेद अतीत में भी विद्यमान थे । इसके अतिरिक्त एक अन्य तरह का भेद है । उस समय शासक अपनी विजयों का लेखा - जोखा रखते थे । यही कारण है कि हम उन शासकों तथा उनके द्वारा लड़ी जाने वाली लड़ाइयों के बारे में काफी कुछ जानते हैं । जबकि शिकारी , मछुआरे , संग्राहक , कृषक अथवा पशुपालक जैसे आम आदमी प्रायः अपने कार्यों का लेखा - जोखा नहीं रखते थे । 

पुरातत्त्व की सहायता से हमें उनके जीवन को जानने में मदद मिलती है । हालांकि अभी भी इनके बारे में बहुत कुछ जानना शेष है ।


तिथियों का मतलब क्या होता है What do the dates mean

अगर कोई आपसे तिथि के विषय में पूछे तो आप शायद उस दिन की तारीख , माह , वर्ष जैसे कि 2000 या इसी तरह का कोई और वर्ष बताओगे । वर्ष की यह गणना ईसाई धर्म - प्रवर्तक ईसा मसीह के जन्म की तिथि से की जाती है । अत : 2000 वर्ष कहने का तात्पर्य ईसा मसीह के जन्म के 2000 वर्ष के बाद से है । ईसा मसीह के जन्म के पूर्व की सभी तिथियाँ ई.पू. ( ईसा से पहले ) के रूप में जानी जाती हैं । 


इतिहास और तिथियाँ अंग्रेज़ी में बी.सी. ( हिंदी में ई.पू. ) का तात्पर्य ' बिफ़ोर क्राइस्ट ' ( ईसा पूर्व ) होता है । कभी - कभी तुम तिथियों से पहले ए.डी. ( हिंदी में ई . ) लिखा पाती हो । यह ' एनो डॉमिनी ' नामक दो लैटिन शब्दों से बना है तथा इसका तात्पर्य ईसा मसीह के जन्म के वर्ष से है । कभी - कभी ए.डी. की जगह सी.ई. तथा बी.सी. की जगह बी.सी.ई. का प्रयोग होता है । सी.ई. अक्षरों का प्रयोग ' कॉमन एरा ' तथा बी.सी.ई. का ' बिफोर कॉमन एरा ' के लिए होता है ।

 हम इन शब्दों का प्रयोग इसलिए करते हैं क्योंकि विश्व के अधिकांश देशों में अब इस कैलेंडर का प्रयोग सामान्य हो गया । भारत में तिथियों के इस रूप का प्रयोग लगभग दो सौ वर्ष पूर्व आरंभ हुआ था । कभी - कभी अंग्रेज़ी के बी.पी. अक्षरों का प्रयोग होता है जिसका तात्पर्य ' बिफ़ोर प्रेजेन्ट ' ( वर्तमान से पहले ) है । 

अन्यत्र जैसाकि हमने पहले पढ़ा , अभिलेख कठोर सतहों पर उत्कीर्ण करवाए जाते हैं । इनमें से कई अभिलेख कई सौ वर्ष पूर्व लिखे गए थे । सभी अभिलेखों में लिपियों और भाषाओं का प्रयोग हुआ है । समय के साथ - साथ अभिलेखों में प्रयुक्त भाषाओं तथा लिपियों में बहुत बदलाव आ चुका है ।

विद्वान यह कैसे जान पाते हैं कि क्या लिखा था ? How do scholars know what was written

इसका पता अज्ञात लिपि का अर्थ निकालने की एक प्रक्रिया द्वारा लगाया जा सकता है । इस प्रकार से अज्ञात लिपि को जानने की एक प्रसिद्ध कहानी उत्तरी अफ़्रीकी देश मिन से मिलती है । लगभग 5000 वर्ष पूर्व यहाँ राजा - रानी रहते थे ।


मिस्र के उत्तरी तट पर रोसेट्टा नाम का एक कसबा है । यहाँ से एक ऐसा उत्कीर्णित पत्थर मिला है जिस पर एक ही लेख तीन भिन्न - भिन्न भाषाओं तथा लिपियों ( यूनानी तथा मिस्री लिपि के दो प्रकारों ) में है । कुछ विद्वान यूनानी भाषा पढ़ सकते थे । उन्होंने बताया कि यहाँ राजाओं तथा रानियों के नाम एक छोटे से फ्रेम में दिखाए गए हैं । इसे ' कारतूश ' कहा जाता है ।

 इसके बाद विद्वानों ने यूनानी तथा मिस्री संकेतों को अगल - बगल रखते हुए मिस्री अक्षरों की समानार्थक ध्वनियों की पहचान की । जैसाकि आप देख सकते हो यहाँ एल अक्षर के लिए शेर तथा ए अक्षर के लिए चिड़िया के चित्र बने हैं । एक बार , जब उन्होंने यह जान लिया कि विभिन्न अक्षर किनके लिए प्रयुक्त हुए हैं , तो वे आसानी से अन्य अभिलेखों को भी पढ़ सकते हैं ।


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